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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 13 
राजा अश्वपति अपनी पुत्री सावित्री की इच्छानुसार उसका विवाह सत्यवान से करने को तत्पर हो गये । विवाह धूमधाम से होना चाहिए यह प्रत्येक माता पिता की कामना होती है  इसलिए राजा ने विवाह की तैयारियां करने के आदेश दे दिये । इस पर सावित्री ने अपने पिता से कहा 
"तात् , आपने मेरे विवाह को धूमधाम से आयोजित करने के लिए समस्त तैयारियां करने का जो आदेश दिया है वह एक राजा और पिता के कर्मों के अनुकूल ही है । पर तात् , अत्यधिक स्नेह कहीं अपनी संतान का अहित का हेतु न बन जाये, ज्ञानी और गुरुजनों को इसका ध्यान रखना चाहिए । मेरे होने वाले श्वसुर एक राज्य च्युत राजा हैं । मेरे होने वाले पति अभी श्री हीन हैं । वे लोग एक वन में बहुत ही साधारण सा जीवन व्यतीत कर रहे हैं । ऐसी स्थिति में उनके समक्ष यह राजसी वैभव का प्रदर्शन क्या उचित होगा ? इस वैभव को देखकर उन्हें क्या हीन भावना ग्रसित नहीं करेगी ? इस कारण क्या उनका अपमान नहीं होगा ? यदि मेरे विवाह के कारण मेरी सास, मेरे श्वसुर और मेरे स्वामी का अपमान हो तो मेरा जीवन धिक्कारने योग्य ही होगा तात् । मेरे कदम उनके जीवन में हीन भावना , तिरस्कार और अपमान रूपी दहेज लेकर आयें तो क्या यह श्रेयस्कर होगा तात् ? आप विद्वान, बुद्धिमान, विवेकवान और विनय की प्रतिमूर्ति हैं । आप जो यह करने जा रहे हैं क्या वह उचित है" ? 

अश्वपति को बात समझ में आ गई लेकिन लोकलाज भी तो कोई चीज है । सामाजिक प्रतिष्ठा का निर्वाह भी तो करना है । "क्या पता उन लोगों के मन में ऐसी कोई कामना हो और अगर उसकी पूर्ति नहीं हो तो वे हमको कृपण समझेंगे । उनके मन की थाह कैसे पता चले ? बड़ा धर्मसंकट आन पड़ा है । नारद जी ही इस विषय में कुछ समाधान सुझा सकते हैं" ऐसा सोचकर राजा अश्वपति ने नारद जी से कहा 
"मुनिवर ! एक पिता के कर्तव्य के नाते मैं अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप पाणिग्रहण संस्कार का बहुत सुंदर आयोजन करूं । मगर सावित्री का कथन भी मुझे उपयुक्त जान पड़ता है कि उन लोगों की अवस्था को देखकर ये समस्त तामझाम उन्हें तपाने वाले सिद्ध ना हो जायें, इसका मुझे भय है । कहीं वे इसे अन्यथा न ले लें । अत : उन्हें जो अपने अनुकूल लगे, वही आचरण हमें करना चाहिए । हे मुनिवर ! आप मेरा मार्गदर्शन करें कि मुझे इस समय क्या कार्य करना चाहिए और क्या नहीं" ? 

राजा की बात सुनकर देवर्षि बहुत प्रसन्न हुए और बोले "राजन ! एक धर्म परायण राजा से ऐसे ही व्यवहार की उम्मीद होती है । वह कभी भी बिना सोचे विचारे कोई कार्य नहीं करता है । आपका और सावित्री दोनों का मत विधिसम्मत है इसलिए आपको ऐसा कार्य करना चाहिए जिससे उन लोगों का मनोरथ पूर्ण हो जाये और उनका आदर सम्मान भी बरकरार रह सके । इसके लिए आपको यह करना चाहिए कि आप अपनी कन्या सावित्री को साथ लेकर बन्धु बान्धवों और रनिवास को साथ लेकर पर्याप्त मात्रा में दहेज लेकर वन में जायें । वहां उनकी सम्मति से सावित्री का पाणिग्रहण संस्कार करें और उनसे निवेदन करें कि वे आपके अतिथि बनकर रहें । यदि वे लोग आपका आतिथ्य स्वीकार नहीं करते हैं तब आप उन्हें अपने साथ ले जाये गये दहेज को प्रदान करें । यदि वे धर्मात्मा पुरुष उसे स्वीकार नहीं करें तो आप इसके लिए अनावश्यक जिद भी नहीं करें । बस, कन्यादान करके वापिस लौट आयें" । 

राजा को यह सलाह उचित लगी इसलिए उसने रथ, पालकी , हाथी घोड़े सजाने का आदेश दे दिया और स्वयं दहेज के सामान की व्यवस्था करने लग गये । सावित्री की माता सावित्री को वधू का मेकअप कराने के लिए श्रंगार कक्ष में लेकर आ गई । जब समस्त व्यवस्थाऐं हो गईं तो राजा अश्वपति पूरे लाव लश्कर के साथ वन में चल दिये । 

सावित्री के लिए ये पल हर्ष एवं दुख मिश्रित थे । अपने पति से मिलन , जीवन में प्रणय का प्रारंभ उसे हर्षित कर रहा था लेकिन अपने माता पिता से सदैव के लिए वियोग रुलाने वाला था । ऐसा पल प्रत्येक युवती के जीवन में आता है । वह प्रेम के समुद्र की ओर एक चंचल नदी की तरह प्रवाहित होती है लेकिन उसे अपने उद्गम स्थल "पर्वत" से भी दूर होना पड़ता है । ईश्वर उसके जीवन में प्रेम की वर्षा भी कर रहा है और बिछोह के आंसू भी दे रहा है । यह कैसा अद्भुत क्षण है ? वह समझ ही नहीं पाती है कि इस क्षण पर वह मुस्कुराये या सिर धुनकर पछताये । सावित्री के हृदय में तूफान उमड़ रहा था । उसे अपने पति के साथ साथ श्वसुर और सास की सेवा करने का सुअवसर प्राप्त होने जा रहा था लेकिन जिसने उसे जन्म दिया और पाला पोषा, उसकी प्रत्येक कामना की तन मन धन से पूर्ति की । उन्हीं जनक और जननी को आज उसे त्यागना पड़ रहा था । एक आंख में असंख्य सपने तो दूसरी आंख में आंसुओं का सावन उमड़ रहा था । "हा दैव ! ये कैसा धर्मसंकट आता है एक युवती के जीवन में ? ये कैसा विधान बनाया है तूने ? दोनों कुलों की मर्यादा वहन करने का गुरुतर भार वधू के कन्धों पर ही क्यों डाला है तूने ? ससुराल में अकिंचनता भी स्वर्ग जैसी और मायके में स्वर्ण भण्डार भी उसके लिए मिट्टी के ढेले जैसे हो गये हैं । यह कैसी माया है प्रभु" ? सावित्री की दशा देखकर उसकी माता ने उसे अपने हृदय से लगा लिया । सावित्री के आंसुओं का बांध माता की ममता की अथाह बारिश के कारण टूट गया था और वह निर्बाध गति से बह चला था । राह में कोई बाधा भी नहीं थी इसलिए माता ने उन आंसुओं को रोकने की कोई चेष्टा भी नहीं की थी । 

चलते चलते शाम होने को आई । इतने अधिक लाव लश्कर और दहेज का सामान जिसमें हजारों गाय और अन्य जानवर भी थे, के खुरों से मिट्टी इतनी उड़ी कि उसने आंधी का रूप ले लिया । द्युमत्सेन की कुटिया उस आंधी से ढंक सी गई । 

"वत्स सत्यवान ! जरा देखो तो , कितनी भयंकर आंधी आ रही है ? कुटिया के दरवाजे और खिड़कियां बंद कर दो पुत्र । धूल मिट्टी के कारण कुछ दिखाई नहीं दे रहा है "। द्युमत्सेन घबरा कर बोले 
"कार्तिक मास में आंधी का चलना श्रेष्ठ लक्षण नहीं है आर्य । ये कोई बहुत बड़ा अपशकुन लग रहा है स्वामी । पता नहीं विधाता और कैसे कैसे दिन दिखायेगा ? सत्यवान, पुत्र । मेरे पास आकर बैठो वत्स । इस भयंकर आंधी में बाहर मत निकलना पुत्र । आओ , मेरे पास आकर बैठो" । सत्यवान की माता अधीर होकर बोली । 

सत्यवान एक आज्ञाकारी पुत्र की तरह अपने माता पिता के आदेशों का पालन कर मां के पास आकर बैठ गया । राजा द्युमत्सेन भी उनके पास खिसक आये । कठिन वक्त पर जब पूरा परिवार साथ होता है तब मन को बहुत शान्ति मिलती है । थोड़ी देर में वह बवंडर शांत हो गया । 

सत्यवान को ऐसा अहसास हुआ कि द्वार पर किसी ने थाप दी है । कुटिया के बाहर बड़ी तेज हलचल हो रही है और बाहर बहुत तेज कोलाहल हो रहा है । राजा द्युमत्सेन ने सत्यवान को कहा "जरा देखो तो वत्स कि बाहर क्या हो रहा है" ? 

जैसे ही सत्यवान ने अपनी कुटिया का द्वार खोला , द्वार पर राजा अश्वपति और रानी सहित वधू के वेश में सावित्री को देखकर सत्यवान हतप्रभ रह गया । उसकी माता भी चौंक पड़ी । पिता द्युमत्सेन ने पूछा "द्वार पर कौन है वत्स" ? 

उत्तर सत्यवान के बजाय राजा अश्वपति ने दिया "एक भिक्षुक है राजन ! भिक्षा के लिए उपस्थित हुआ है । क्या उसे भिक्षा मिलेगी" ? 
"मैं एक पराजित व्यक्ति आपको कुछ भी देने की स्थिति में नहीं हूं याचक । लेकिन मैं अपने धर्म का त्याग नहीं करूंगा । मेरी इस कुटिया में जो कुछ भी आपको नजर आ रहा है, आप उसे ले सकते हैं और मुझे कृतार्थ कर सकते हैं देव" 
"मैं इस तरह भिक्षा नहीं लूंगा राजन । पहले आपको एक वचन देना होगा उसके पश्चात ही भिक्षा लूंगा राजर्षि" राजा अश्वपति ने विनय पूर्वक कहा 
"मेरे पास देने के लिए ऐसा कुछ नहीं है याचक जिसके लिए मुझे आपको वचन देना पड़े । फिर भी मैं आपकी संतुष्टि के लिए वचन देता हूं । आप निस्संकोच होकर कहिये कि आपको क्या चाहिए" ? द्युमत्सेन ने प्रसन्नता पूर्वक कहा 
"माता सावित्री सदृश गुणों वाली मेरी पुत्री सावित्री के लिए दैवीय गुणों से परिपूर्ण आपके पुत्र सत्यवान का हाथ चाहिए । कृपा करके मेरा अभीष्ट मुझे प्रदान करें राजन । आप वचन बद्ध भी हैं इसलिए विलंब न करते हुए मनवांछित भिक्षा देकर मुझे अनुग्रहीत करें प्रभु" । राजा अश्वपति द्युमत्सेन के चरणों में शीश नवाकर बोले । 

राजा अश्वपति की बात सुनकर द्युमत्सेन को बड़ा आश्चर्य हुआ । उसने राजा अश्वपति के सिर पर हाथ फेरा तो उसे वहां मुकुट महसूस हुआ । वे आश्चर्य से बोले "हे मुकुट धारी महानुभाव ! आप कौन हैं ? अपना परिचय शीघ्र दें" । उनके स्वर में चिंता स्पष्ट नजर आ रही थी । 
"मैं मद्र देश का राजा अश्वपति हूं । ये मेरी धर्म पत्नी और ये मेरी गुणवान और तेजवान कन्या सावित्री है । मैं इसका हाथ आपके पुत्र के हाथ में देने के लिए यहां उपस्थित हुआ हूं । आप पुत्रवधू के रूप में मेरी पुत्री को स्वीकार करें, नाथ" । इतना कहकर राजा अश्वपति ने द्युमत्सेन के चरम पकड़ लिये । 
"यह क्या कह रहे हैं आप राजन ? आप जैसा समधी और सावित्री जैसी पुत्रवधू पाकर मैं धन्य हो गया हूं राजन । मेरा पुत्र सत्यवान बड़ा भाग्यवान है जिसे आप जैसा श्वसुर और सावित्री जैसी पत्नी प्राप्त हुई । मुझे लगता है कि हमने पिछले जन्म में कुछ श्रेष्ठ कार्य किये होंगे इसलिए आप जैसे सज्जन पुरुष ने खुशी बनकर हमारे द्वार पर दस्तक दी है । आपकी पुत्री हमें स्वीकार है राजन । सावित्री पुत्री अपने भाग्य का सूरज लेकर हमारे जीवन के अंधकारों को दूर करने के लिए ही आई है राजन । आपके यहां आने और पुत्री सावित्री के संकल्प ने मेरे मन में आशा का दीपक प्रज्ज्वलित कर दिया है जिससे मेरे मन को विश्वास हो गया है कि अब हम लोग इसी पृथ्वी पर स्वर्ग लोक का आनंद प्राप्त करने वाले हैं । राजन , मेरी पूर्ण सहमति है इस विवाह के लिए । पुत्र सत्यवान, आपका क्या मत है" ? 
"तात् ! मैं तो आपका पुत्र हूं । आप जो भी आदेश मुझे देंगे , वह मेरे लिए शिरोधार्य होगा तात्" । सत्यवान ने अपने विचार प्रकट कर दिये । 
"इस विवाह के लिए क्या आपकी स्वीकृति है भार्ये" ? द्युमत्सेन ने अपनी पत्नी से पूछा 
"मैं आपसे पृथक कहां हूं नाथ ? आप जो करेंगे उसमें मेरी सहमति तो होगी ही । एक पति के आदेशों को मानना पत्नी का श्रेष्ठ कार्य है । सावित्री को पुत्रवधू के रूप में पाकर मेरी जन्मों की साध आज पूरी हो गई है नाथ" 

इस प्रकार सबकी सहमति से वहीं पर पाणिग्रहण संस्कार संपन्न हो गया । तब राजा अश्वपति ने पूछा "अगर आप मुझ पर कृपा करें तो मैं दहेज का कुछ सामान अपनी पुत्री को दे दूं" ?

कुछ सोचते हुए राजा द्युमत्सेन बोले "राजन ! हमें आपकी पुत्री मिल गई इससे बढ़कर और कुछ नहीं चाहिए । पुत्री सावित्री सौन्दर्य में देवी पार्वती , ऐश्वर्य में देवी लक्ष्मी और गुणों में प्रकृति तथा बुद्धिमानी में देवी सरस्वती के समान है । यह अन्नपूर्णा , गायत्री और अनुसूइया से भी बढकर है । सावित्री को प्राप्त करने के पश्चात और कुछ प्राप्त करने योग्य है ही नहीं । फिर भी आप एक बार सत्यवान से पूछ लो , यदि वह लेना चाहे तो अवश्य ले" । कहकर द्युमत्सेन शांत होकर बैठ गये । तब सत्यवान बोला 
"तात् ! मुझ अकिंचन को आपने देवी सावित्री के योग्य समझ कर आपने मेरा सम्मान बढाने का कार्य किया है । सावित्री से बढ़कर और कौन सी "श्री" है जिसकी मुझे आकांक्षा है ? अत: हमें दहेज में कुछ नहीं चाहिए" । 

इस प्रकार राजा अश्वपति के द्वारा लाख अनुनय विनय करने के उपरांत भी द्युमत्सेन के परिवार ने कोई दहेज नहीं लिया । थक हारकर राजा अश्वपति अपनी रानियों और दरबारियों को साथ लेकर अपने राज्य में वापस आ गये । 

क्रमश : 
श्री हरि 
4.5.2023 

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